सद् गुरू कबीर दास

जग के हरे हवे पीर भइय्या रे
सदगुरू दास कबीर
गढ़ि- गढ़ि खोट काढ़ै मन के
शबद चलाके तीर

हिन्दवा ल हिन्दवाई सिखाये
तुरकन ल तुरकाई
सतनामी ल सतनाम लखाये
सेवक ल सेवकाई
बइठे गंगा तीर

मनखे ल तैं मनखे माने
कभू दुसर नइ जाने
शून्य गगन में पुरूष के वासा
एक तिही पहिचाने
हंस उबारे तीर

दुनिया बोले कागद लेखी
तोर शबद हे आँखन देखी
सुन के सबके तन-मन भिंगगे
क्षिण म उतरगे, मन के शेखी
लगगे तोर अबीर

काशी म तोर जनमन होइस
तोर ज्ञान दुनिया ल धोइस
मगहर म तैं ठाठ ल छोड़े
सबे वचन तोर पूरा होइस
लोग बहावे नीर
- के. आर. मार्कण्डेय



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