छत्तीसगढ़ के माटी अब जागे हे
छत्तीसगढ़ के माटी अब जागे हे
जागो ग किसान जुग जागे हे
जागे के बेरा अब आ गे हे
जागो ग किसान , जुग जागे हे
ददा- परिया के तोर भुइंया ग
पानी के मोल झन बेचौ
नइ मिले कोनो मेर छइंहा ग
माटी के मोल मन सोचौ
कतको लेवइय्या नित मांगे हे
तुम हो पोसइय्या सरी दुनिया के
तुंहरे अनाज सब खावत हे
आज हवे कोठी काबर तुंहर सुन्ना
चतुरामन मेछरावत हे
तोर हाँसी- खुशी ह लुकागे हे
दिनो- दिन बाढ़त हे मंहगाई ह
सबे जिनिस होगे महंगा
बाबू बर नइये बने कुरता
नोनी बर नइये तोर लहंगा
छानी के खदर उड़ागे हे
माटी म हवे तुंहर हीरा के ढेरी
खन कोड़के आज निकालो
घुर घुरहा जिनगी के पीरा पराही
महिनत संग चेत जगालो
संगवारी मन घलो आ गे हे
जगा- जगा जुरमिल विचारत हे
नवा समाज के गढ़ैया मन
सबो बर बने दिन लानत हे
गरीब के आरो लेवइय्या मन
गरीबी आज हरुवा गे हे
रचना दिनांक 11.06.1999 सा. के. आर. मार्कण्डेय
जागो ग किसान जुग जागे हे
जागे के बेरा अब आ गे हे
जागो ग किसान , जुग जागे हे
ददा- परिया के तोर भुइंया ग
पानी के मोल झन बेचौ
नइ मिले कोनो मेर छइंहा ग
माटी के मोल मन सोचौ
कतको लेवइय्या नित मांगे हे
तुम हो पोसइय्या सरी दुनिया के
तुंहरे अनाज सब खावत हे
आज हवे कोठी काबर तुंहर सुन्ना
चतुरामन मेछरावत हे
तोर हाँसी- खुशी ह लुकागे हे
दिनो- दिन बाढ़त हे मंहगाई ह
सबे जिनिस होगे महंगा
बाबू बर नइये बने कुरता
नोनी बर नइये तोर लहंगा
छानी के खदर उड़ागे हे
माटी म हवे तुंहर हीरा के ढेरी
खन कोड़के आज निकालो
घुर घुरहा जिनगी के पीरा पराही
महिनत संग चेत जगालो
संगवारी मन घलो आ गे हे
जगा- जगा जुरमिल विचारत हे
नवा समाज के गढ़ैया मन
सबो बर बने दिन लानत हे
गरीब के आरो लेवइय्या मन
गरीबी आज हरुवा गे हे
रचना दिनांक 11.06.1999 सा. के. आर. मार्कण्डेय
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