हे सतनाम

हे सतनाम ! जिनगी के
टोरव घोर अंधेरा ल
हे सतनाम , विनती हे
सुधारव थोर बेरा ल

न इहां दीया , न कोनो बाती
न कोनो संगी , न कोनो साथी
नइये ग छानी , नइये ओरवाती
दिन घलो राती , अउ रतिहा हे राती

मन जेति आगे , रेंगत हवे पांव
पटपर भांठा , नइ दिखे कोनो गाँव
कोलिहा- कुकुर , करे खांव- खांव
कटरत हे कंउवा , करे कांव- कांव

मारो- मारो बाजा , बाजत हवे
काटो- काटो , सब कहत हवे
पानी असन लहु, बोहत हवे
कलप- कलप धरती , रोवत हवे

सुधारव थोर बेरा ल
हे सतनाम विनती हे

- सा. के. आर. मार्कण्डेय

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