कविता बनती है आग कभी

कविता में शब्द घनेरी है
ये तो शब्दों की चेरी है
पगली सी देती फेरी है
ये तेरी है, न मेरी है

कविता एक कला है
बिन साधे एक बला है
पत्थर भी जिससे गला है
इससे इन्सान ढला है

कविता को जानो सरिता
जिसमें है निर्मलता
मन को देती शीतलता
हर लेती सब चंचलता

कविता बनती है आग कभी
नर जाते हैं , जाग सभी
गाते हैं मिलकर फाग सभी
आलोकित होता राग सभी

- के. आर. मार्कण्डेय

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