मोला कहना हे संत समाज ल

मोला कहना हे संत समाज ल
तुम बदलो अपन आज ल
ये धरती के राजा तुम हो
दूसर झन पहिरे ताज ल

माटी कोड़ो , जांगर तोड़ो
महिनत से तुम , नाता जोड़ो
चु हे पसीना  तन ल , थप- थप
करम के मोती गाथा जोड़ो
सुख निंदरी के सेज सोवइय्या
देखे तुंहर काज ल

आय ल जादा खरचा करथौ
लागा बोड़ी करजा करथो
बरे बिहाती घर म रोवे
बहिरासू के दरजा करथो
बरजय्या के बोली कांपे
देखे तुंहर मिजाज ल

बने- बने मन साधु बन गेव
दाई- ददा बर तुमन तनगेव
करम करे के बेरा कइसे
महिनत ल तुम पाछु टरगेव
तन- मन साधो सहजे साधु
बदलो रीति रिवाज ल

खान- पान तोर बिगड़िस काबर
दुनिया करथे लिबिर- लाबर
मन चंडाली बइरी होके
तुमला बिगाड़े नौ मन आगर
बेरा संभले के आ गे अब
रोको सब खड़बाज ल

पढ़े- लिखे विद्वान बने हौ
थोकिन झुकव काबर तने हौ
ये समाज के करता- धरता
मुंह बांधे अनजान बने हौ
तुम ठानव ते परलय होही
मिल के करो आवाज ल

- सा. के. आर. मार्कण्डेय


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