कतेक सुख चाही ग

माटी के काया
कतेक सुख चाही ग
लाखों बटोर ले
संग नइ जाही ग

चारो मुड़ा आलिशान
महल बनाये ग
छुटगे मया मन
ऊहां तैं धंधाये ग
पानी पवन तोला
भले मिल जाही ग

अपन कुटुम बर
बड़े - बड़े जोरा होगे
गुरू के बचन इहां
सबे मेर कोरा होगे
कहे- सुने बर
भले मिल जाही ग
जिनगी अपन तैं
अपने बर जीयत हस
लागे न पियास तभू
घेरी- बेरी पीयत हस
तृष्णा के प्यास
भला कब बुझ पाही ग

- सा. के. आर. मार्कण्डेय

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